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Sanjeev Paliwal/संजीव पालीवाल

@sanjeevpaliwal

Author, Journalist, #Naina (नैना), #Pishach (पिशाच), #YeIshqNahinAasaan amazon.in/dp/9390679338/…

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T Rajneesh टी रजनीश🇮🇳 (@trivedirajneesh) 's Twitter Profile Photo

Sanjeev Paliwal/संजीव पालीवाल वाह 👏 चन्दन के पेड़ को किसी बेल के सहारे की ज़रूरत नहीं होती पर चन्दन के पेड़ से एकबार लिपटने वाली बेल उससे अलग होकर जी नहीं पाती।

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दूर जाकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे, यूँ बिछड़ कर न रतियाँ गुज़ारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे। मन मिला तो जवानी रसम तोड़ दे, प्यार निभता न हो तो डगर छोड़ दे, दर्द देकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे। खिल रही कलियाँ आप भी आइए, बोलिए या न

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एक दिन अचानक मिल जाएंगे तो एक दिन अचानक मिल जाएंगे तो शायद मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा, सिर्फ तुम्हारे चेहरे पर बीते वर्षों की धूप और थोड़ी सी थकान पढ़ता रहूँगा — जैसे किताब के बीच से कोई सूखी पत्ती गिरकर यकायक कोई पुराना दिन लौटा दे । क्या पूछूँगा? कैसे हो — ये तो सब पूछ लेते हैं,

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सुना है मैंने तुम्हारी गली के लोगों से कि तुम उदास सी रहती हो सुबह के हंगाम तुम्हारी साड़ी के आँचल को जब पकड़ते हैं तसव्वुर-ओ-ख़यालात के हसीं अस्नाम तुम्हारे नर्म तबस्सुम के दिलनशीं गुंचे बे-इख़्तियार तुम्हारी हँसी उड़ाते हैं तुम्हारे क़हक़हे पुख़्ता ज़मीन पर गिर-गिर कर

zindagi (@weandourlove) 's Twitter Profile Photo

नहीं,नहीं.. मैं उदास नहीं हूं, बस ख़ुद से कुछ पुराने झगड़े चल रहे हैं। कुछ बिखरे ख़्याल जब मेरी साड़ी के किनारों को छू लेते है, जब बिना पूछे ,मेरे बदन में दाख़िल हो जाते हैं। तब मेरी हँसी, हाँ, वो कभी-कभी टूट जाती है, जैसे काँच की पतली प्याली जिसमें किसी ने चुपके से थोड़ा-सा अतीत

नहीं,नहीं..
मैं उदास नहीं हूं,
बस ख़ुद से कुछ पुराने झगड़े चल रहे हैं।
कुछ बिखरे ख़्याल
जब मेरी साड़ी के किनारों को छू लेते है,
जब बिना पूछे ,मेरे बदन में दाख़िल हो जाते हैं।
तब मेरी हँसी,
हाँ, वो कभी-कभी टूट जाती है,
जैसे काँच की पतली प्याली
जिसमें किसी ने चुपके से
थोड़ा-सा अतीत
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नवंबर की गुदगुदाती हल्की सर्द रात में ओस से गीली घास पर नंगे पाँव चलना तुम्हारे विंडशचीटर की जेब में अपना ठंडा सा हाथ डाल तुम्हारी हथेलियों में हथेलियों का बंध जाना एक तारे का मुस्कुरा कर टूटना और पलक के एक रोएं का भी झड़ कर आँख के नीचे चिपक जाना शीतल सी हवा के बहाने तुम्हारे

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अब न आएगा कभी रूठ के जाने वाला उम्र भर ख़त वही पढ़िएगा सिरहाने वाला वो मरासिम भी निभाता है तो रस्मों की तरह आ गया उस को भी दस्तूर ज़माने वाला ये जुदा होने की रुत है न दिखाओ जी को ज़िक्र छेड़ो न कोई अगले ज़माने वाला मैं ने यादों को कफ़न दे के सुला रक्खा है कौन आएगा यहाँ मिलने

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ख्वाहिशें / कैसा होता जो एक बार फिर लौट चलते हम जंगल की ओर नजर भर हरियाली होती सांस भर हवा भूख भर रोटी और आत्मा भर संगीत कैसा होता जो बच्चे तय करते हमारी दुनिया का भविष्य बूढ़े भागते भर दिन फूलों और तितलियों के पीछे कैसा होता जो हर रोज हत्या, बलात्कार, आतंक और

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*तुमसे मिलना* तुमसे मिलना बैसाख की रात में पीले गुलमोहर के नीचे से होकर गुज़रना था खिले सूरज थे, झरते सूरज थे, तलुओं से लिपटते सूरज ही थे हर क़दम मैं थोड़ा और कुंदन हुई तुमसे मिलना रेवा के नरम जल में थके पाँवों का उतरना था लहर-लहर मैं कल-कल शीतल हुई तुमसे मिलना खुरदुरी

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एक चाय की चुस्की एक कहकहा अपना तो इतना सामान ही रहा। चुभन और दंशन पैने यथार्थ के पग-पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के। भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा। एक अदद गंध एक टेक गीत की बतरस भीगी संध्या बातचीत की । इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा छू ली है

मधुलिका…“सुकून” (@_sukoon) 's Twitter Profile Photo

घर से निकला ये सोचकर कि तुमसे मिलना है …इस एहसास की गर्माहट इतनी थी कि उतावलेपन में भूल गया गर्म जैकेट पहनना यूँ ही बग़ैर जूते के घरवाली स्लीपर में निकल आया ये सारी बातें याद तब आई जब तुम सामने आई कितना ज़ोर से डाँटा था मुझको तुमने उदास सा हो गया था मैं उस दिन तुम

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तुम्हारे होने का जादू जब सुनसान पहाड़ जागते हैं मुझमें तब मैं होता हूं उन राहों पर जहां अब भी एक आदिम गमक शेष है सूर्य की, सृजन की, हरित वनस्पतियों की पत्थर तराशते पानी की आवाज़ मैंने इन्हीं संदर्भों में तुम्हें देखा था, जाना था तुम्हारी कल्पना की थी धरती की विराट छवि के

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इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं इस तरह तो वक़्त कट सकता नहीं आस्तीनों से न आँसू पोछिए और ही तदबीर कोई सोचिए। यह अकेलापन, अँधेरा, यह उदासी, यह घुटन द्वार तो हैं बंद भीतर किस तरह झाँके किरण। बंद दरवाज़े ज़रा-से खोलिए रौशनी के साथ हँसिये-बोलिए मौन पीले पत्ते सा झर जाएगा तो ह्रदय का

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अगर हम एक हो गए होते जुड़ गए होते सप्तपदी से तो आज जो सम्पन्नता है हमारे पास न होती वह हमारे साथ कुछ रिश्ते नहीं बने होते हैं पाणिग्रहण संस्कार में बंधने के लिए वे तो बने होते हैं स्मृतियों की संपत्ति संचित करने के लिए वे तो बने होते हैं सुकुमोल संवेदनाओं को

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ये बात करीब 1998-1999 की होगी। तब मैं और मोना भट्टाचार्य दूरदर्शन पर सुबह सवेरे प्रस्तुत करते थे। उन दिनो लाइव करने की सुविधा नहीं थी। जैसी आज है। तब कोई रिपोर्टर मुंबई में इंटरव्यू करता था। दिल्ली ऑफिस टेप भेजता था। फिर एक प्रोड्यूसर उसे सुनकर सवाल लिखता था। वो सवाल हमें दिये

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वो भी क्या शाम थी 😊 जब मेरे फोन की घंटी घनघनाने लगी। अरे कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन ने तुम्हारा नाम लिया है। हर कोई यही कह रहा था। मुझे कुछ समझ नहीं आया। जब देखा तो हतप्रभ भी हुआ और मन कृतज्ञता से भर उठा। नाम भी आया तो गुरुदेव सुरेंद्र मोहन पाठक साहब के साथ। लेखन कब

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दिसंबर का पहला हफ्ता , मैं कहीं मसरूफ़ था.। फोन पर उसका मैसेज आया। "मिल लो किसी से लिपटने का दिल कर रहा है अलसुबह से " पिछले तीन सालों से दिसंबर के पहले हफ्ते उसकी आमद ऐसे ही होती .मुझे दिसंबर अज़ीज़ था अब उसमे एक वजह और जुड़ गयी। उसके मूड हर मौसम में अलहदा रहते। अमूमन खामोश

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हथेली पर मेरी चाँद तुमने, पेशानी पर मैंने,प्यार लिखा! कुछ इस तरह से एक-दूजे पर, हमने अपना अधिकार लिखा! चमकता ललाट तेरा तभी से, गोया सवाल करता मुझसे, आओ साथ या मिटा दो इसे, ये जो तुमने अंगार लिखा! हथेली पर मेरी चाँद तुमने, पेशानी पर मैंने,प्यार लिखा! कुछ इस तरह से एक-दूजे पर,